मैं जो हासिल तिरे कूचे की गदाई करता बंदगी कहते हैं किस शय को ख़ुदाई करता ज़र्रे ज़र्रे को तिरे कूचे में था मुझ से ग़ुबार मैं जो करता भी तो किस किस से सफ़ाई करता मोतकिफ़ जो तिरे कूचे के थे उठते न कभी का'बा ख़ुद आ के अगर नासिया-साई करता सोच नाहक़ है असीरान-ए-क़फ़स के दिल को क्या पड़ी थी जो कोई फ़िक्र-ए-रिहाई करता काँपते हाथों से खुलता न क़फ़स ऐ सय्याद काश मंज़ूर भी तू मेरी रिहाई करता 'शाद' दुश्मन की शिकायत का वज़ीफ़ा बे-कार क्या ग़रज़ थी कि मिरे साथ भलाई करता