मिरी तौबा जो टूटी है शरारत सब फ़ज़ा की है क़ुसूर अब्र-ए-बहारी का ख़ता काली घटा की है किसे इल्ज़ाम दें कश्ती के अपनी डूब जाने का ख़ता-ए-नाख़ुदा होगी मगर मर्ज़ी ख़ुदा की है न आज ऐ शैख़ तू ठुकरा मय-ए-गुलफ़ाम को हरगिज़ दवा ही जान कर पी जा अरे सर्दी बला की है क़नाअ'त कर अरे वा'इज़ जहाँ की ने'मतों पर तू बना जन्नत यही दुनिया ये दुनिया भी ख़ुदा की है विसाल-ए-हक़ कभी मुश्किल कभी आसान लगता है ज़रा सा फ़ासला है दरमियाँ दीवार अना की है 'अता ख़िल’अत कहाँ से हो करे इकराम कौन इस का रहे दूर अहल-ए-मस्नद से बुरी 'आदत 'सदा' की है