मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से वो ये कह रहे हैं हम को तिरे हाल की ख़बर क्या तू उठा सका निगाहें न बता सका ज़बाँ से जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से मैं अदम के लाला-ज़ारों में नवा-गर-ए-अज़ल था मुझे खींच लाई ज़ालिम तिरी आरज़ू कहाँ से मिरी सरनविश्त में था वही दाग़-ए-ना-मुरादी जो मिला मिरी जबीं को तिरे संग-ए-आस्ताँ से बचे बिजलियों की ज़द से वही ताएरान-ए-दाना जो कड़क चमक से पहले निकल आए आशियाँ से ये है माजरा-ए-वहशत कि मिला सुराग़-ए-महमिल न ग़ुबार-ए-कारवाँ से न दरा-ए-कारवाँ से नहीं कुछ समझ में आता ये अजीब माजरा है कि ज़मीं के रहने वालों को हिदायत आसमाँ से शब-ए-ग़म जो आई 'सालिक' मिटे बातनी अंधेरे मिरा दिल हुआ मुनव्वर तब-ओ-ताब-ए-जावेदाँ से