मिटती हुई तहज़ीब से नफ़रत न किया कर चौपाल पे बूढ़ों की कहानी भी सुना कर मालूम हुआ है ये परिंदों की ज़बानी थम जाएगा तूफ़ान दरख़्तों को गिरा कर पीतल के कटोरे भी नहीं अपने घरों में ख़ैरात में चाँदी का तक़ाज़ा न किया कर मुमकिन है गरेबानों में ख़ंजर भी छुपे हों तू शहर-ए-अमाँ में भी न बे-ख़ौफ़ फिरा कर माँगे हुए सूरज से तो बेहतर है अंधेरा तू मेरे लिए अपने ख़ुदा से न दुआ कर तहरीर का ये आख़िरी रिश्ता भी गया टूट तन्हा हूँ मैं कितना तिरे मक्तूब जला कर आती हैं अगर रात को रोने की सदाएँ हम-साए का अहवाल कभी पूछ लिया कर वो क़हत-ए-ज़िया है कि मिरे शहर के कुछ लोग जुगनू को लिए फिरते हैं मुट्ठी में दबा कर