मुझे सवाल की शर्मिंदगी से उलझन थी वो मेरे पूछे बिना हर जवाब रखता था हमारे हिज्र के मौसम गुज़ारने के लिए सिरहाने अपने मिरी इक किताब रखता था वो भूल जाता था ख़ुद पर सितम जो हो जाएँ मगर जो मुझ पे हों सारे हिसाब रखता था मिरी थकी हुई आँखों में प्यास रहती थी वो ख़्वाब ख़्वाब सी आँखों में आब रखता था उसे पता था मुझे लफ़्ज़ छोड़ जाते हैं सो मेरी रूह से अक्सर ख़िताब रखता था ये मर्द-ओ-ज़न के तफ़रक़ों से उस को नफ़रत थी वो हर सफ़र में मुझे हम-रिकाब रखता था