मुझे तुझ से बिछड़ जाने का दुख है कली के खिल के मुरझाने का दुख है मुझे कल तू ने ठहराया था लेकिन जहाँ को आज ठुकराने का दुख है वफ़ा पाने की दिल में आरज़ू थी तमाशा बन के रह जाने का दुख है तुझे सौ बार समझाया था मैं ने मगर अब तेरे कुम्हलाने का दुख है जगाता है मुझे शब भर तिरा ग़म ख़ुशी अपनी न बेगाने का दुख है लगा कुछ झड़ते पत्ते देख कर यूँ मिरे तन्हा चले आने का दुख है अगरचे आज 'हसरत' चुप है लेकिन तिरी तन्क़ीद का ता'ने का दुख है