नगर में शाम हो गई है काहिश-ए-मआश में ज़मीं पे फिर रहे हैं लोग रिज़्क़ की तलाश में गुज़र गई तमाम उम्र इस हिसार-ए-तंग में कशिश है इक मरीज़ सी मकाँ की बूद-ओ-बाश में हिलाल हर्फ़-ए-ख़ौफ़ सा फ़सील-ए-संग-ए-नील पर या है अदम का ज़र्द रंग ख़्वाहिश-ए-ख़राश में चमक रहे हैं ताज़िए बला की तेज़ धूप में महक है आब-ए-मर्ग की फ़िशार-ए-अरक़-पाश में 'मुनीर' हुस्न-ए-बातिनी को कोई देखता नहीं मता-ए-चश्म खो गई लिबास की तराश में