नज़र में धूल फ़ज़ा में ग़ुबार चारों तरफ़ ज़रूर फैलेगा अब इंतिशार चारों तरफ़ तुझे भी वादी-ए-हू ने क़ुबूल कर ही लिया अब अपने आप को फिर से पुकार चारों तरफ़ चले भी आओ कहीं कुछ गुमाँ तो बाक़ी रहे कि ढल रही है शब-ए-इंतिज़ार चारों तरफ़ समझ न पाया कोई दर्द बिखरे लम्हों का ये शाम फिर से हुई अश्क-बार चारों तरफ़ तू अब की बार न बच कर निकलने पाएगा सफ़र में देख तिलिस्मी हिसार चारों तरफ़ यहाँ बहिश्त से आई है एक सब्ज़ परी इसी लिए है फ़ज़ा में निखार चारों तरफ़