निगाह-ए-नाज़ का ख़ाली गया न तीर कोई किसी की जान गई और हुआ असीर कोई विसाल-ए-यार का रस्ता दिखा रही हो जो हमारे हाथ में दिखती नहीं लकीर कोई न भूल कर भी करो इन हसीं बुतों का यक़ीं न इन बुतों का ख़ुदा है न इन का पीर कोई कभी कभी मुझे सब से अमीर लगता है गली के मोड़ पे बैठा हुआ फ़क़ीर कोई कहाँ तलक यूँ अकेले सफ़र करोगे 'सदा' तुम्हारे साथ न रहबर न राहगीर कोई