नूर-ए-मह को शब तह-ए-अब्र-ए-तनक क्या लाफ़ था बाल उस मुखड़े से उठ जाते तो मतला साफ़ था साफ़ी दिल-ग़ज़ंद की क्या थी दम-ए-बोस-ओ-कनार बोसे को मुश्किल ठहरना सीने से ता नाफ़ था इक निगह का दूर से भी आज कल महरूम है दिल कि तेरा मुद्दतों ख़ू-कर्दा-ए-अल्ताफ़ था हो दर-ए-मय-ख़ाना पर बे-दुख़्त-ए-रज़ बैठे हुए हज़रत-ए-'ममनूँ' यही क्या शेवा-ए-अशराफ़ था