पल दो पल की जो आश्नाई थी मुझ को लगता था कल ख़ुदाई थी मैं ने ठुकरा दिया था दुनिया को जब यहाँ तू पलट के आई थी फिर किसी दूसरे की हो जाना ये बता मुझ में क्या बुराई थी माँगते क्यों हो तुम दलील-ए-ख़ुदा गर ख़ुदा था तो ये ख़ुदाई थी रोग भी मुश्तरक जदीद सा था हर तरफ़ एक ही दुहाई थी जिस के लब पर सवाल आया था आग उस ने ही आ लगाई थी 'नज्म' उस मोड़ पर चले आए जिस जगह साँस डगमगाई थी