क़ुदरत है अब न दिल पे न क़ाबू ज़बान पर क़दमों पे उन के सर है दिमाग़ आसमान पर ये राज़-ए-इश्क़ आ गया जिस दिन ज़बान पर होगा फ़लक ज़मीं पे ज़मीं आसमान पर साक़ी की वो नज़र है न साग़र की गर्दिशें अब क्या रखा है पीर-ए-मुग़ाँ की दूकान पर अल्लाह उन के बर्क़-ए-तबस्सुम की ख़ैर हो मख़्लूक़ रो रही है मिरी दास्तान पर आज़ादियाँ भी अपनी असीरी से कम नहीं जो दिल में है वो ला नहीं सकते ज़बान पर अब उन की जुस्तुजू है न अपनी तलाश है जब से वो छा गए हैं हमारे गुमान पर अपनी ज़बाँ से क्यों मैं किसी को बुरा कहूँ खुल जाएगी हर एक वफ़ा इम्तिहान पर ये हुस्न-ओ-इश्क़ दोनों हक़ीक़त में एक हैं लेकिन ये राज़ ला नहीं सकता ज़बान पर बार-ए-ज़मीं है आज हमारा वजूद भी रहता था ये दिमाग़ कभी आसमान पर कौनैन मेरे हुस्न का इक अक्स है 'मुनीर' छाई हुई हैं दिल की ज़ियाएँ जहान पर