रश्क करते हैं शनासा भी मुक़ाबिल की तरह काश कोई मिरे पहलू में रहे दिल की तरह शायद इक रोज़ मुझे ख़ुद से ख़ुदा मिल जाए ईस्तादा हूँ दर-ए-ज़ात पे साइल की तरह मुश्क-ए-आहू से महकने लगा दिल का जंगल याद के दश्त में उतरा जो तू महमिल की तरह ऐसे बेज़ार मोहब्बत के सितम क्या कहना पेश आए जो मिरे शौक़ से मुश्किल की तरह चश्म-ए-इबरत कोई रखता तो दिखाते उस को शहर-ए-जाँ में कई आसार हैं बाबुल की तरह जबकि मंज़िल ने तुम्हें ढूँड लिया है 'जौहर' क्यों भटकते हो अब आवारा-ए-मंज़िल की तरह