रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई आँसू बहाए चार तबीअत सँभल गई मैं ने तरस तरस के गुज़ारी है सारी उम्र मेरी न होगी जान जो हसरत निकल गई बेचैन हूँ मैं जब से नहीं दिल-लगी कहीं वो दर्द क्या गया कि मिरे दिल की कल गई कहता है चारागर कि न पाएगा इंदिमाल अच्छा हुआ कि ज़ख़्म की सूरत बदल गई ऐ शम्अ हम से सोज़-ए-मोहब्बत के ज़ब्त सीख कम-बख़्त एक रात में सारी पिघल गई शाख़-ए-निहाल-ए-उम्र हमारी न फल सकी ये तो है वो कली जो निकलते ही जल गई देखा जो उस ने प्यार से अग़्यार की तरफ़ 'शाइर' क़सम ख़ुदा की मिरी जान जल गई