सुब्ह-दम कौन ये नींदों से जगा देता है रात को लोरी सुनाता है सुला देता है बात बदले की यहाँ तक उसे ले आई है वो मिरी याद को सूली पे चढ़ा देता है उस की निय्यत में है क्या वो तो ख़ुदा ही जाने मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है जादा-ए-इश्क़ में दरकार है इख़्लास-ए-अमल ज़र्रा-ज़र्रा जहाँ पैग़ाम-ए-वफ़ा देता है अब्र का टुकड़ा ही सर पर मिरे वो भिजवाता रेग-ज़ारों में जो सब्ज़े को उगा देता है मशग़ला उस का अभी तक है वही सुनते हैं रेत पे लिख के मिरा नाम मिटा देता है हम समझते हैं कमी-बेशी तवज्जोह की तिरी कौन है दर्द बढ़ाता है घटा देता है हस्ब-ए-तौफ़ीक़ अमल भी है ज़रूरी 'नजमी' कामयाबी तो ब-हर-हाल ख़ुदा देता है