सुकून-ए-दिल अभी लाऊँ कहाँ से मुझे फ़ुर्सत नहीं आह-ओ-फ़ुग़ाँ से बहुत है काहिश-ए-दर्द-ए-मोहब्बत हमें क्या वास्ता ऐश-ए-जहाँ से न पूछो माजरा-ए-शौक़ हम से कहीं लग़्ज़िश न हो जाए ज़बाँ से करम उन का तिरे हाल-ए-ज़बूँ पर मगर ये बात बाहर है गुमाँ से अभी शर और आफ़त तो है बाक़ी शराफ़त उठ गई लेकिन जहाँ से नसीहत बज़्म-ए-वाइ'ज़ में हुई थी अदब सीखा मगर बज़्म-ए-बुताँ से ख़बर है उन को हर्फ़-ए-मुद्दआ' की भला हम क्यों कहें अपनी ज़बाँ से है कैसी रौशनी सहन-ए-चमन में गिरी है बर्क़ शायद आसमाँ से न बर आई तमन्ना दिल की 'नासिर' उठे हम नामुरादाना जहाँ से