सुना है चुप की भी कोई पुकार होती है ये बद-गुमानी मुझे बार बार होती है ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया सराब की दुनिया नज़र फ़क़ीर की पर्दे के पार होती है अज़ाब-ए-दीदा कोई रंग सींचते कैसे ख़िज़ाँ-गज़ीदगी आशुफ़्ता-बार होती है मैं अपने हिस्से के मंज़र उजालने से रहा ये आगही तो बहुत दिल-फ़िगार होती है उमीद ही से ज़माने में शाद-कामी है यही वो शाख़ है जो साया-दार होती है ये रात मातमी मल्बूस ही में जचती थी ये रात ही तो हमें पुर्सा-दार होती है मैं जी रहा हूँ तो जीने का हौसला देखो ये ज़ख़्म-कोशी तग़ाफ़ुल-शिआर होती है