तुझ पे दोनों निसार हैं क़ातिल जान-ए-मुज़्तर हो या दिल-ए-बिस्मिल क़हर है क़हर-ए-इश्क़ की मंज़िल हर क़दम आग है नई मुश्किल हो गए देख कर वो आईना अपनी सूरत पे आप ही माइल ग़म से आज़ाद कर दिया हम को क्यों न पीर-ए-मुग़ाँ के हों क़ाइल किस क़दर दिल-कुशा फ़ज़ा होगी आप जब होंगे ज़ीनत-ए-महफ़िल आदमियत को नाज़ था जिन पर अब वो दाना रहे न वो आक़िल चारा-साज़ी मरीज़-ए-उल्फ़त की आप के वास्ते नहीं मुश्किल आरज़ूओं में मच गई हलचल कौन ये याद आ गया ऐ दिल तू उभारे जो हम को पस्ती से तुझ को यारब नहीं कोई मुश्किल हाए जो बात भी कही मैं ने ज़ेर-ए-लब तू ने कह दिया मोहमिल क्या भरोसा करें किसी पे 'नरेश' आदमी आदमी का है क़ातिल