तुम्हें ये वहम इशारा तुमारी ज़ात से था ग़लत न समझो मुख़ातिब मैं काएनात से था मुझे ये रंज सवाद-ए-मुशाहिदात से था जवाज़-ए-जाँ भी यहाँ मर्ग-ए-ख़्वाहिशात से था न अब वो जहल न दानिश्वरी की बातें हैं कि हुस्न-ए-फ़ल्सफ़ा हुस्न-ए-तनाज़े’आत से था फ़साद-ए-शहर न था बे-सबब कि रब्त उस का म’आशियात से था या सियासियात से था सहर को बाद-ए-सबा ने मुझे बिखेर दिया मैं अपनी ख़ाक सँभाले हुए तो रात से था बचा हवा से तो धूपों की ज़द में आ के गिरा वो बर्ग-ए-सब्ज़ जो मौसम की बाक़ियात से था त'अय्युशात में समझा गया उसे नाहक़ त'अल्लुक़ उस का हमारी ज़रूरियात से था हर एक शख़्स को थी ख़्वाहिश-ए-गज़ंद वहाँ कि उस का दार भी जैसे तबर्रुकात से था वो मर गया तो ख़ुदा हो गया हज़ारों का वो शख़्स अपने ही जैसा था जब हयात से था 'रऊफ़' ख़ैर त'अल्लुक़ शुरूअ' से अपना जमालियात से था हुस्न-ए-शे'रियात से था