उसे भुला न सकी नक़्श इतने गहरे थे

उसे भुला न सकी नक़्श इतने गहरे थे
ख़याल-ओ-ख़्वाब पर मेरे हज़ार पहरे थे

वो ख़ुश गुमाँ थे तो जो ख़्वाब थे सुनहरे थे
वो बद-गुमाँ थे अँधेरे थे और गहरे थे

जो आज होती कोई बात बात बन जाती
उसे सुनाने के इम्कान भी सुनहरे थे

समाअ'तों ने किया रक़्स मस्त हो हो कर
सदा में उस की हसीं बीन जैसे लहरे थे

हमारे दर्द की ये दास्तान सुनता कौन
यहाँ तो जो भी थे मुंसिफ़ वो सारे बहरे थे

चले गए वो शरर बो के इस क़बीले में
तो क़त्ल होने को 'शाहीन' हम भी ठहरे थे


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