वो इक हसीन हादिसा जो होते होते टल गया हमारी ज़िंदगी के सब उसूल ही बदल गया फ़ज़ा-ए-साज़गार से न थी ग़रज़ बहार से बबूल की तरह था मैं कहीं भी फूल फल गया हज़ार हो किसी से इश्क़ लाख हों अक़ीदतें मगर किसी के आस्ताँ पे कौन सर के बल गया भला ये मेरी तिश्नगी न और क्यों भड़क उठे कि आया मेरे हाथ में तो जाम ही पिघल गया पहुँच चुका था मैं बहुत क़रीब अपने ख़्वाब के मगर मैं सोचता रहा रक़ीब चाल चल गया मैं जिस के इंतिज़ार में था वो कहीं वही न हो नज़र बचा के जो अभी क़रीब से निकल गया टपक रही थी 'अम्बर' उस की शक्ल से फ़रिश्तगी मगर वो सारे शहर को बुरी तरह से छल गया