ज़ीस्त की तारीक राहों में दिया कोई नहीं इस सफ़र में जुज़ ग़म-ए-दिल रहनुमा कोई नहीं हम किसी इस्कंदर-ओ-दारा का खाएँ क्यों फ़रेब हम क़लंदर हैं हमारा मुद्दआ' कोई नहीं एक तुम सारी ख़ुदाई जिस की है हल्क़ा-ब-गोश और मेरे ज़ुल्मत-कदे में दूसरा कोई नहीं कौन इस नक़्क़ार-ख़ाने में सुनेगा दोस्तो इक शिकस्ता शीशा-ए-दिल की सदा कोई नहीं किस से तुझ को ऐ ग़म-ए-जानाँ भला तश्बीह दें इतनी दिलकश तो धनक ख़ुशबू सबा कोई नहीं ऐ बुतान-ए-शहर इस वज़्अ-ए-कुहन को क्या हुआ तुम में अब इश्वा-तराज़ ओ कज-अदा कोई नहीं मैं ने ख़ुद अपनी असीरी शौक़ से मंज़ूर की दोस्तो सय्याद की इस में ख़ता कोई नहीं ख़ाक-ए-पा-ए-गुल-रुख़ाँ आवारा-ए-कू-ए-बुताँ इन दिनों 'जाबिर' सा मर्द-ए-पारसा कोई नहीं