जब महकते हैं तसव्वुर में तिरे लब के गुलाब जाने क्यों दीदा-ए-नमनाक छलक जाता है चूम लेता है अगर रू-ए-तमन्ना एहसास हर तरफ़ दर्द का शो'ला सा दहक जाता है अपने मजबूर तसव्वुर का अलमनाक मआल देख कर अपने ही हालात से शरमाता हूँ दस्त-ए-उम्मीद बढ़ाता है अगर कोई सवाल अक्स-ए-तन्हाई से आज़ुर्दा सा हो जाता हूँ रात गहरी है निगाहों में उजाला भी नहीं तेरी जानिब से किसी शौक़ का नग़्मा न मिला सोच वीराँ है कोई देखने वाला भी नहीं दीदा-ए-यास में रक़्साँ कोई साया न मिला ये मुक़द्दर में लिखा है तो चलो सब्र करें अपने ही अश्कों से पैमाना-ए-इमरोज़ भरें