फ़िक्र की दौड़ में तुम दूर निकल आए हो अपनी मंज़िल को बहुत पीछे ही छोड़ आए हो कहीं ऐसा न हो कल तुम को पलटना पड़े मंज़िल की तरफ़ और फिर ताब-ओ-तवाँ साथ न दे हुस्न-ए-बयाँ साथ न दे ख़ामा अंगुश्त-ब-दंदाँ रह जाए उँगलियाँ साकित-ओ-जामिद हो जाएँ पाँव थर्राने लगें और मंज़िल तो कुजा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न मिले