ख़ुशनुमा एक फल शाख़-ए-उम्मीद का मरकज़-ए-आरज़ू महवर-ए-जुस्तुजू ख़ेमा-ए-रंग-ओ-बू हर नफ़स हर नज़र रूह की आबरू जिस्म की दस्तरस से बहुत दूर था आँख उस के उजाले सजाती रही पास से दूर तक उस के क़दमों की आवाज़ आती रही उस को पाने का हर इक जतन ज़िंदगी की लगन रोज़-ओ-शब कसमसाती रही काविशें दाएरे सी बनाती रहीं कोशिशें कितने ख़ाके सजाती रहीं और फिर इक अजब सानेहा वक़्त ने लिख दिया आँधियों ने उसे तोड़ कर मेरी आग़ोश में रख दिया कोशिशें काविशें दम-ब-ख़ुद और अब वुसअ'त-ए-आरज़ू अपने दामन की तंगी पे हैरान है ख़्वाहिश-ए-राएगाँ मुंतशिर कौन से घर में आख़िर बसाऊँ उसे ज़िंदगी किस तरह से बनाऊँ उसे अपने सीने से कैसे लगाऊँ उसे दूर का ख़्वाब जब पास आया मिरे मसअला बन गया अब पता ये चला सोचने और करने में क्या फ़र्क़ है