नापना सहल नहीं है तिरी अज़्मत का फ़िराक़ क़द्र करना किसी माहिर की नहीं कोई मज़ाक़ उर्दू होगी तिरे एहसान से क्यूँकर बे-बाक़ कह रहे हैं गुल-ओ-नग़्मा के ये ज़र्रीं औराक़ क़ौमी यक-जेहती का हामी तो मुनाफ़ी-ए-निफ़ाक़ क्या बयाँ हो तिरे औसाफ़-ए-हमीदा का फ़िराक़ तेरे पैग़ाम-ए-हक़ीक़ी से हैं लबरेज़ अस्बाक़ तू है सुल्तान-ए-अदब नज़्म-ओ-ग़ज़ल दोनों में ताक़ तू है यकता-ए-ज़माँ इस में नहीं कोई कलाम पेश-ए-ख़िदमत है ब-सद इज्ज़ ये 'सूफ़ी' का कलाम ज्ञान पीठ आज है शादाँ तुझे दे कर इनआ'म आज शोहरत का तिरी है सर-ए-अफ़्लाक मक़ाम