सर-ए-साहिल खड़ा हूँ फ़िक्र में गुम हूँ समुंदर कितना गहरा है निगाह-ए-जुस्तुजू ज़ेहन-ए-रसा मजबूर और आजिज़ लब-ए-तहक़ीक़ भी गुम-सुम निगाह-ए-वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हर्फ़-ए-बसीरत का अहाता कर नहीं पाती शुऊ'र-ओ-फ़हम के साए झुलस जाते हैं राहों में तजस्सुस जिस क़दर गहरा उतरता है वजूद-ए-तिश्नगी कुछ और गहरा होता जाता है अज़ल से नुक़्ता-ए-अव्वल हमारे कर्ब का शायद शनावर तो कई आए छुआ हर एक क़तरे को मगर कोई सदाक़त बन के गहराई से कब उभरा ये इक मौज-ए-परेशाँ है कि अंधी प्यास रौशन है बिखरता दर्द टूटी उम्र का हर आख़िरी लम्हा इसी ग़म में गुज़रता है कि कितनी कट चुकी है कितनी बाक़ी है ब-ईं काविश अभी तक झाग है दस्त-ए-तजस्सुस में सदफ़ तो तह में मिलते हैं मगर ये तह कहाँ पर है सर-ए-साहिल खड़ा हूँ फ़िक्र में गुम हूँ