ख़मोशी ख़मोशी मुसलसल ख़मोशी थी दिल के नगर में ख़मोशी ही तक़दीर-ए-इंसाँ हो जैसे कि इक दिन अचानक दर-ए-दिल पे दस्तक हुई मसर्रत मधुर गीत गाने लगी तमन्नाओं के लब पे भी फूल खिलने लगे रुख़-ए-वक़्त से सरकने लगीं चादरों की तहें वो चेहरा हज़ारों में जो एक था तसव्वुर की आँखों की पुतली बना वो लब जिन को फ़रमाया है 'मीर' ने गुल-ए-सुर्ख़ की पंखुड़ी ख़यालात को कर गए शक्करीं हिना-रंग सारी फ़ज़ा हो गई वो गेसू घटाएँ भी देती थीं जिन को ख़िराज दिल-ओ-दीदा पर छा गए सुकूँ राज़-ए-तख़्ईल दिखला गए मगर शौक़ के हाथ ने बढ़ के खोला जो दर न था कोई चेहरा न लब थे न गेसू फ़क़त इक हयूला था ज़ेर-ए-नक़ाब