शुऊर-ओ-फ़िक्र का गहवारा इल्म-ओ-फ़न का अमीं वरक़ वरक़ जहाँ महके हैं रंग-ओ-नूर के फूल लुटा रही है जहाँ ख़ामुशी मताअ'-ए-उसूल जहाँ हयात के पोशीदा राज़ हँसते हैं सुकूँ के होंटों पे लफ़्ज़ों के साज़ हँसते हैं जहाँ मआ'नी-ओ-असरार जगमगाते हैं तफ़क्कुरात की हर लहज़ा शम्अ' जलती है ये रौशनी तो ज़माने के साथ चलती है अज़ल से ग़ौर-ओ-तफ़क्कुर है आदमी का अमल जला रहा है ज़मीं पर चराग़-ए-सोज़-ए-ग़ज़ल और एक दिन मिरी साँसों पे कोई चाँद उगा मैं ने इक मंज़िल-ए-मक़्सद का निशाँ पा ही लिया एक मुद्दत से जो ओझल था नज़र से मेरी वही एहसास उजालों में रवाँ पा ही लिया आज खिलते हैं मिरी साँसों में क़ुर्बत के गुलाब हर तमन्ना मिरी बर्बाद नहीं होती है ज़ख़्म खाता हूँ तो खिल जाते हैं शाख़ों पे गुलाब ज़िंदगी माइल-ए-फ़रियाद नहीं होती है कट रहे हैं मिरी हस्ती के शब-ओ-रोज़ जहाँ अब भी रंगीन तबस्सुम के कँवल खिलते हैं वो इशारे जिन्हें उन्वान-ए-मोहब्बत कहिए शोख़ नज़रों में मुझे रक़्स-कुनाँ मिलते हैं लेकिन ऐ मरकज़-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन मुझ को यूँ कोई फ़िक्र-ओ-ग़म-ए-तल्ख़ी-ए-हालात नहीं फिर भी जो बात तिरे नाम से मंसूब रही सब मयस्सर है यहाँ सिर्फ़ वही बात नहीं