फ़ितरत-ए-मुज़्तरिब मेरा शौक़-ए-फ़ुज़ूल जाने कब इक किताब शेल्फ़ से तेरी ले आया था याद की तेरी पुरवाई कल जो चली बोल उठे उस के सारे वरक़ तेरे लब के गुलाब तेरी आँखों के जाम तेरे मुखड़े की सुब्ह तेरी ज़ुल्फ़ों की शाम मुस्तक़िल इक ख़लिश दर्द-ए-बे-नाम जिस को कहें और फिर चंद सफ़्हों के बा'द गुल की इक पंखुड़ी ज़र्द मुरझाई बे-रंग सी जिस्म की तेरे ख़ुशबू थी उस में मगर थी नज़ाकत लबों की तिरे उँगलियों के निशाँ आँसूओं की नमी मेरी नज़रों ने फिर उस को सज्दा किया और वो लम्हा जैसे अमर हो गया