दरख़्तों से पत्तों के झड़ने का मौसम भी है और तुम्हारी 'कँवल' बाग़ के इक किनारे पे बिखरे हुए सूखते टूटते ज़र्द पत्तों पे चलते हुए नज़्म इक मुख़्तसर लिख रही है तुम्हारे लिए उस की आँखों से बे-रंग बहते हुए अश्क जो लाल होने को थे हिज्र का ज़हर पीते हुए कासनी हो गए अपनी ज़ख़्मी सी पोरों से चुन कर उन्हें लिख रही है कोई नज़्म इक मुख़्तसर जिस का उन्वान है लौट आओ सुनो कि दरख़्तों से पत्तों के झड़ने का मौसम भी अब जा रहा है बहारों की राह देखते और तुम्हारी 'कँवल' पत्ती पत्ती बिखरते हुए रास्ते से यूँ लग कर बड़ी देर से रास्ता देखते अब बहुत थक गई लौट आओ सुनो