नदी के हाल को अब देख कर अफ़्सोस होता है नदी का एक माज़ी था न जाने कितनी तारीख़ी किताबों में नदी की अहमियत के अन-गिनत अबवाब रौशन हैं नदी तहज़ीब का मस्कन रही है इसी की मौज ने आग़ाज़ में इंसान को वाक़िफ़ कराया इर्तिक़ाई मरहलों से इसी के साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ पानी ने युगों तक मुख़्तलिफ़ नस्लों की दिल से आबियारी की इसी की चीख़ती चिंघाड़ती लहरों पे ग़लबा पा के इंसाँ ने तरक़्क़ी की मगर अंधी तरक़्क़ी ने नदी की शक्ल इतनी मस्ख़ कर डाली कि आँखों को किसी सूरत यक़ीं आता नहीं जो कुछ नज़र के सामने है वो हक़ीक़त है गंदे बदबू-दार नाले की तरह जो बह रही है यही तो वो नदी है तज़्किरे जिस के किताबों में भरे हैं कितनी तहज़ीबों का जो मस्कन रही है नदी के हाल का जब जाएज़ा लेती हैं नज़रें तो बहुत अफ़्सोस होता है