मिरे शहर में मिरी आख़िरी वो अजीब शब थी विसाल की कि चमन में छाया धुआँ सा था कहाँ शबनमी वो बहार थी वो चमेली ख़ुशबू बिखेरती वो भरी सी शाख़ें गुलाब सी कि हर एक पत्ती थी नौहा-ख़्वाँ थी कली कली भी निढाल सी थे वो मुझ से जैसे गिला-कुनाँ मैं चली हूँ क्यों उन्हें छोड़ के थीं लरज़ती काँपती डालियाँ कि लबों पे सब के थे मरसिए ये बयान करते थे पैरहन हमें ख़ुद से तुम न जुदा करो तिरी ख़ुश्बूओं में बसे हैं हम हमें अपने साथ ही ले चलो था अजीब शोर सा हर तरफ़ कि समाअ'तें भी लरज़ गईं मिरी सिसकियाँ मिरी आहें भी मिरे दिल में ख़ौफ़ से जा छुपीं न समय रुका न मैं रुक सकी कि वतन ही मुझ से बिछड़ गया वही मिट्टी जिस का ख़मीर थी वही शहर मुझ से बिछड़ गया