न जाने कब से बोसीदा मकाँ में क़ैद हूँ इक पर कटे ताइर के मानिंद जिस की आवाज़ें कोई सुनता नहीं सुनता भी है तो लौट जाता है सभी डरते हैं मैं उन से रिहाई भीक में लूँगा सभी ये भूल जाते हैं मुझ ऐसे पर-कटे ताइर की ज़िंदाँ से रिहाई भी किसी गुमनाम गोशे में सिसकती मौत से कुछ कम नहीं होगी सभी ये भूल जाते हैं मैं ज़िंदा हूँ मगर इक लाश के मानिंद ज़िंदा हूँ जिसे अपने सफ़र का बोझ अब औरों के काँधों पर उठाना है