महकती थी फ़ज़ा पुर-कैफ़ मंज़र था बहारों का सिमट कर आ गया था नूर ज़र्रों में सितारों का फ़ज़ाओं में तरन्नुम था परिंदे चहचहाते थे हवा के सर्द झोंके बे-ख़ुदी का गीत गाते थे वो रुत आमों की सावन का महीना शाम भीगी सी चमन में मोतियों से पुर थी झोली ग़ुंचा-ओ-गुल की सुरूर-ओ-कैफ़ में खोया हुआ था दिल-कुशा मंज़र मसर्रत-आफ़रीं था सर-ब-सर बरसात का मंज़र अचानक उस को ऐसे वक़्त पहली बार देखा था ख़ुदा मालूम क्या जादू भरा वो हुस्न-ए-रा'ना था बिछी जाती थी मौसम की नज़ाकत उस के क़दमों में मचलती थी बहारों की लताफ़त उस के क़दमों में उसी के दम से सारा गुल्सिताँ फ़िरदौस-मंज़र था चमन में इंहिसार-ए-मौसम-ए-गुल तक उसी पर था दिल आँखों से ये कहता था निगाह-ए-ग़ौर से देखो कहीं इस रूप में दोशीज़ा-ए-फ़ित्रत न आई हो उतर आया न हर फ़र्श-ए-ज़मीं पर चाँद का टुकड़ा कोई भटका हुआ जल्वा न हो गुलज़ार-ए-जन्नत का सुरय्या का कोई परतव न हम-आग़ोश-ए-फ़ितरत हो कोई अंजुम न भूले से ज़िया-बर-दोश-ए-फ़ितरत हो वो जल्वा जिस को ख़ुद रानाई-ए-फ़ितरत पे प्यार आए वो जिस के ख़ैर-मक़्दम को दो-आलम की बहार आए वो क़ुदरत थी ख़ुदा की जिस पे ख़ुद क़ुदरत तसद्दुक़ थी वो बरकत थी यक़ीनन जिस पे हर बरकत तसद्दुक़ थी वो सूरत थी जिसे नूर-ए-ख़ुदा शान-ए-ख़ुदा कहिए जिसे तस्कीन दिल काए नज़र का मुद्दआ' कहिए तमन्ना थी कि उस को देख कर बस देखते जाएँ शराब-ए-बे-ख़ुदी पी कर न अपने आप में आएँ उसी का रंग था गुल में कली में रूप उस का था न हुस्न-ए-दिलरुबा ऐसा सुना ही था न देखा था वो इक मुँह बोलती तस्वीर थी हुस्न-ओ-नज़ाकत की ख़ुद आँखें बन के जल्वा देखने की दिल को हसरत थी किसे इस की ख़बर थी प्यार बन जाएगी ये हसरत किसे मालूम था आज़ार बन जाएगी ये हसरत 'रिशी' किस को पता था आँख मिल कर दिल भी अटकेगा बिल-आख़िर ख़ार-ए-उल्फ़त उम्र-भर सीने में खटकेगा