वही सदा जो मिरे ख़ूँ में सरसराती थी वो साया साया है अब हर किसी की आँखों में ये सरसराहटें साँपों की सीटियों की तरह सियाहियों के समुंदर की तह से मौज-ब-मौज हमारी बिखरी सफ़ों की तरफ़ लपकती हैं बदन हैं बर्फ़, रगें रहगुज़ार-ए-रेग-ए-रवाँ कई तो सहम के चुप हो गए हैं सूरत-ए-संग जो बच गए हैं वो इक दूसरे की गर्दन पर झपट पड़े हैं मिसाल-ए-सगान-ए-आवारा हवा गुज़रती है सुनसान सिसकियों की तरह सदा-ए-दर्द जो मेरे लहू में लर्ज़ां थी झलक रही है वो अब बे-शुमार आँखों में लबों पे सूख गई हर्फ़-ए-शौक़ की शबनम किसी में ताक़त-ए-गुफ़्तार अगर कहीं है भी तो लफ़्ज़ आते हैं होंटों पे हिचकियों की तरह तराशिये तो कई पत्थरों के सीनों में शजर की शाख़ों के मानिंद नक़्श फैले हैं पर उन के रेशों में ज़ौक़-ए-नुमू नहीं मलता कोई नफ़ीर कि जिस की नवा-ए-होश-नवाज़ दिलों से दूर करे सरसराहटों का तिलिस्म कोई उमीद का पैग़ाम कोई प्यार का इस्म वो ख़्वाब-ए-परवरिश-ए-जाँ कि जिस पे सदक़े हों जिस्म