कभी कभी इक किरन उजाले की मेरे काँधे पे हाथ रख कर ये पूछती है कि और कितना सफ़र है बाक़ी हुआ है तय किस क़दर है बाक़ी ये रास्ता कर्ब-ए-आगही का कहाँ से निकला गया कहाँ तक चराग़ एहसास-ए-ख़ुद-सरी का कोई भी लिख कर कोई भी पढ़ कर नहीं बताता नसीब कैसा है आदमी का यक़ीन-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र है बाक़ी सराब-ए-जाँ रहगुज़र है बाक़ी मगर किसी को पता नहीं है हयात-ए-इंसाँ है कितनी बाक़ी बस एक मैं हूँ कि कर्ब-ए-एहसास मेरा साया ये ज़ात का ग़म जो साथ आया गुमान की आँधियों ने अक्सर मुझे खिलाया नज़र नज़र इक चराग़ आँखों में झिलमिलाया यक़ीं की सूरत ज़मीं की सूरत तुम्हारी रौशन जबीं की सूरत मैं इक सदाक़त चराग़-ए-राहत वजूद-ए-रिफ़अत मैं ज़ौ-फ़िशाँ हूँ फ़ना की वादी से जिस्म मेरा गुज़र भी जाए मिरा बदन लम्हा लम्हा बन कर बिखर भी जाए ये कर्ब-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र ये रौशन ज़मीर मेरा ये ज़ख़्म-ए-तहक़ीक़ जो बदन पर लिखा हुआ है ये ज़हर और इक जो रगों में मचल रहा है जिसे पिया है समझ के आब-ए-हयात मेरी जसारतों ने हर एक सीने में बीज बोता रहेगा मेरी तजल्लियों के खिलाएगा साँस साँस तहरीर रौशनी की सफ़र मिरी काविश-ए-नज़र का यक़ीन का रिफ़अत-ए-हुनर का न ख़त्म होगा