मान ली सरकार ने जब माँग शे'रिस्तान की शाइ'रों ने साँस ली तब जा के इत्मीनान की पुरकशिश था इस क़दर उन के लिए ताज़ा वतन छोड़ कर आबाई घर जाने लगे अहल-ए-सुख़न 'अम्न' 'मुल्ला' 'अर्श' 'साग़र' 'वज्द' 'जज़्बी' और 'फ़िराक़' अपना अपना क़ाफ़िला ले कर चले बा-तमतराक़ बंद कर दी 'साहिर'-ओ-'सरदार' ने फ़िल्मी दुकाँ ले के निकले इंक़िलाबी शाइ'रों का कारवाँ साथ 'अल्वी' को लिए निकले 'ख़लील'-ओ-'शहरयार' आगे पीछे कुल जदीदी थे क़तार-अंदर-क़तार गुनगुनाते गीत गाते 'बेकल' उत्साही चले तंज़िया अशआ'र कहते 'फ़ुर्क़त'-ओ-'वाही' चले यूँही सारे मुल्क से कुल शा'इरान-हर-ज़बाँ सू-ए-मंज़िल चल पड़े ले ले के अपनी टोलियाँ साल-भर में शाइ'रों से मुल्क ख़ाली हो गया इन्ख़िला उन का मुकम्मल और मिसाली हो गया आम तख़मीने के रू से उन की तादाद-ओ-शुमार तूल-ओ-अर्ज़-ए-मुल्क में थी दो करोड़ इकसठ हज़ार नक़ल-ए-आबादी के इस तारीख़-साज़ इक़दाम से कुछ मसाइल हल हुए कुछ मसअले पैदा हुए उठ गई जब मुल्क से अशआ'र-साज़ों की बरात कुछ ग़िज़ाई मुश्किलों से क़ौम ने पाई नजात दफ़अ'तन बे-रोज़गारी की वबा भी कम हुई ज़ोर शोरिश का घटा सरकार मुस्तहकम हुई फैमली मंसूबा-बंदी की ज़रूरत घट गई बाप-माँ पर थी जो पाबंदी वो फ़ौरन हट गई