वो इक घड़ी भी कभी मिरी ज़िंदगी में आई थी इत्तिफ़ाक़न कि मैं किसी का नहीं था मेरा कोई नहीं था मैं लौह-ए-महफ़ूज़ की तरह था समझ रहा था कि सारी फ़र्दा-ओ-दी की बातें हैं ज़ेहन पर नक़्श-ए-जावेदाँ सी वो सब हवादिस जो आने वाले हैं लौह-ए-दिल पर लिखे हुए हैं मैं अब किसी का नहीं हूँ कोई मिरा नहीं है अगर तुम उस दिन ज़रा सी हिम्मत से काम लेतीं ज़रा सा तुम मुझ पे हक़ जतातीं तो ज़िंदगी का वो मोड़ ही कुछ अजीब होता उफ़ुक़ के उस पार कौन जाने कोई मिरे इंतिज़ार में कब तक अपनी आँखें लहू बहा कर ख़राब करता