ज़िंदगी तो नहीं तुम मगर मेरी जाँ ज़िंदगी की तरह हो डूबती शाम साहिल पे कोई परिंदा उड़े दूर मंजधार में नाव से कोई माँझी लगाए सदा सरसराए हवा कोई पत्ता हिले कोई ग़ुंचा खिले याद आती हो तुम और ऐसी ही रुत में कभी मन-चली नर्म-ओ-नाज़ुक हवा गुदगुदाती तो होगी तुम्हें मेरी जाँ और इक बे-अदब सर-फिरा नौजवाँ याद आता तो होगा तुम्हें ना-गहाँ मुझ को एहसास है फ़ासले हैं बहुत दूरियाँ हैं बड़ी मंज़िलें हैं कड़ी फिर भी ऐ जान-ए-जाँ ये तो सोचो ज़रा हम अकेले भी इक दूसरे के बिना जी तो लेंगे मगर क्या ये जीना हुआ ज़हर पीना हुआ