shama jo aage sham ko aai rashk se jal kar khak hui subh gul-e-tar samne ho kar josh-e-sharm se aab hua शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई सुबह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ मीर फ़रमाते हैं कि मेरे महबूब को शम्अ ने शाम में देख लिया था और बस रश्क से जल जल कर ख़ाक हो गई, ख़ैर ये तो हुई शाम की बात, फिर सुबह हुई तो एक ताज़ा फूल खिला हुआ था , जो अपनी ताज़गी पर बहुत इतरा रहा था, ज़रा नज़र पड़ी मेरे प्यारे महबूब पर कि सारी बड़ाई निकल गई, अब देखो शर्म से पानी पानी हुआ जा रहा है। ये शे’र सनअत-ए-ता'लील की ज़बरदस्त मिसाल है। सनअत-ए-ता'लील या’नी किसी वाक़िया का कुछ और सबब हो लेकिन शायर उसकी कोई और शायराना वजह बयाँ करे। मसलन शम्अ को शाम के वक़्त लोग जलाते हैं और धीरे धीरे जलते जलते वो ख़ाक हो जाती है, ख़त्म हो जाती है, लेकिन ‘मीर’ फ़रमा रहे हैं: शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई कहते हैं, नहीं भई वो मेरे महबूब से जलती है, उसे ये बर्दाश्त नहीं होता कि कोई चेहरा शम्अ के चेहरे से ज़ियादा ताबिश, उस से ज़्यादा नूर, उस से ज़ियादा, चमक-दमक रख सकता है, इस लिए जल जल के ख़ाक होती है। फिर फ़रमाते हैं: सुब्ह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ सुब्ह के वक़्त ताज़ा फूल एक तो वैसे ही ताज़गी की वजह से थोड़ी तरी लिए होता है और फिर भीगा हुआ भी होता है, लेकिन ‘मीर’ साहब के लिए उसके भीगे होने का सबब ये नहीं है, बल्कि वजह ये है कि फूल अपनी ताज़गी, अपने हुस्न, अपने रंग, अपनी ख़ुशबू और अपनी नज़ाकत, पर फूले न समाता था और अब बेचारे ने मेरे महबूब को देख लिया है, और उसे एहसास हुआ कि मेरे महबूब के रुख़ जैसी ताज़गी, मेरे महबूब के चेहरे जैसी ख़ूबसूरती, मेरे महबूब के गालों जैसी रंगत, मेरे महबूब के जिस्म जैसी ख़ुशबू और मेरे महबूब के लबों जैसी नज़ाकत न उसमें है, न थी, न कभी हो सकती है , तो ख़ुद पे फ़ख़्र करने वाले को जब अपनी कमतरी का एहसास होगा तो वो श्रम से पानी पानी ही तो होगा, बस यही वजह है गुल की तरी की। ग़ालिब अपने ख़ास ग़ालिबाना रंग में फ़रमाते हैं: होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे सहरा तो ख़ाक में ही अटा हुआ होता है ना। और अगर आप समुंद्र के किनारे पर हों तो आपको दिखेगा कि लहरें आ आ के किनारे को छू रही हैं। ये निज़ाम-ए-क़ुदरत है, लेकिन ग़ालिब कह रहे हैं कि मैं सहरा में हूँ तो मेरी अज़मत के सबब सहरा ख़ाक में अट जाता है, मिट्टी हो जाता है, अपने आपको हक़ीर समझता है। और जब मैं समुंद्र के किनारे होता हूँ तो मेरे एहतिराम में समुंद्र आ आ के अपना माथा ख़ाक पर रगड़ता है। या’नी मेरे आगे सर झुकाता है। इसे आप मुबालग़ा कह लें, एग्रेशन कह लें, झूट कह लें, लेकिन यही शायर और शायरी का सच है। आशिक़ जोश-ए-इश्क़ में महबूब के अलावा कुछ नहीं देख पाता। यही वजह है कि हिज्र में तमाम ख़ूबसूरत मंज़र हुस्न खो देते हैं और महबूब साथ हो तो सहरा की गर्म रेत भी ख़ुश-गवार मालूम होती है। या’नी आशिक़ के लिए काएनात की हर शय में हुस्न-ओ-ख़ूबी की वजह महबूब का होना है और उस के न होने से हर चीज़ में कमी आ जाती है। यही आशिक़ का सच है। इन्सान कुछ ख़ास लमहात में ख़ुद को इतना अहम समझ लेता है कि उसे लगता है कि निज़ाम-ए-क़ुदरत की हर हरकत उसके सदक़े में है या उसके लिए है। कभी ख़ुद को ऐसा मज़लूम-ए-ज़माना मान लेता है कि उसे लगता है कि हर बला उसी के लिए है। कभी ये तक लगता है कि बिजली का कौंदना भी इस वजह से है। क्योंकि बिजली उसे डराना चाहती है, इस के साथ छेड़ करना चाहती है। मीर के ही इक शे’र पे बात ख़त्म करते हैं। जब कौंदती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से