टिंकू

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राजमहल होटल शहर का सबसे बड़ा और आलीशान होटल था। उसके हर फ़र्श पर बड़े क़ीमती क़ालीन बिछे थे और छतों में ख़ुशनुमा फ़ानूस लटके हुए थे। मेज़ कुर्सियाँ और खाने पीने के बर्तन भी बड़े साफ़ सुथरे और आला दर्जे के थे। हर-रोज़ चार से पाँच बजे के दरमियान वहाँ शहर के बड़े अमीर लोग चाय पीने आते थे। क्योंकि ग़रीब लोग तो इस होटल में जा ही नहीं सकते थे। इस होटल के बड़े हाल में जहाँ बड़े लोग बैठ कर चाय पीते थे। ग़ुल मचाना मना था, और ना बदतमीज़ी की कोई बात करने की इजाज़त थी। क्योंकि बड़े लोग ना तो ग़ुल मचाने को अच्छा समझते थे और ना किसी क़िस्म की बदतमीज़ी को।
इस होटल में बहुत से बैरे मुलाज़िम थे जो अलग़ू के नीचे काम करते थे क्योंकि वो इन सबसे बड़ा बैरा था।

एक दिन जबकि होटल के बड़े हाल में बड़े लोग चाय पीने के लिए जमा थे। बैरे बड़ी जल्दी में इधर उधर आ जा रहे थे। मेहमानों से आर्डर ले रहे थे। चाय और उस के साथ खाने पीने की चीज़ें मेज़ों पर लगा रहे थे और अलग़ू एक तरफ़ देख रहा था कि कोई बैरा अपना काम सुस्ती से तो नहीं कर रहा। मगर वो सब अपना अपना काम ठीक ठीक कर रहे थे। अचानक एक तरफ़ से शोर सुनाई दिया और एक बुड़ी ही भोंडी आवाज़ आई।
’’ए बैरा क्या मेरे लिए चाय नहीं लाओगे?'' [...]

दादी अम्मां की कहानी

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दादी अम्मां सोने से पहले सब बच्चों को कहानी सुनाया करती थीं। हमारे घर में उनकी कहानी सुनने के लिए मुहल्ले के दूसरे बच्चे भी आ जाते। हर-रोज़ रात को हम उनसे कहानी सुनते। उनकी कहानी बहुत मज़े-दार होतीं। हम उन्हें मज़े ले-ले कर सुनते। आख़िर में दादी अम्मां कहानी ख़त्म कर के सबको दुआएं देतीं।
इस रात भी सब बच्चे उनके गिर्द जमा थे। दादी अम्मां ने कहानी इस तरह शुरू की।

नन्हे-मुन्ने फूल जैसे नाज़ुक बचोगे कहानियाँ तो तुमने ना जाने कितनी सुनी होंगी। उनमें जिन्नों, देवओं, भूतों परियों, बादशाहों और शहज़ादों, सभी किस्म की कहानियाँ तुमने सुनी होंगी, लेकिन आज मैं जो कहानी सुनाने वाली हूँ, वो ना किसी जिन्न देव की है, ना बादशाह या शहज़ादे की, बल्कि आज की कहानी एक औरत और उसके बेटे की है।
‘‘भला ये क्या कहानी हो सकती है दादी अम्मां!’’ एक बच्चे ने हैरान हो कर कहा। दादी अम्मां मुस्कुराईं और फिर कहने लगीं। [...]

मेरे उस्ताद मेरे मोहसिन

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जब मैं अपने उस्तादों का तसव्वुर करता हूँ तो मेरे ज़ह्न के पर्दे पर कुछ ऐसे लोग उभरते हैं जो बहुत दिलचस्प, मेहरबान, पढ़े लिखे और ज़हीन हैं और साथ ही मेरे मोहसिन भी हैं। उनमें से कुछ का ख़्याल कर के मुझे हंसी भी आती है और उन पर प्यार भी आता है। अब मैं बारी-बारी उनका ज़िक्र करूँगा।
जब मैं बाग़ हालार स्कूल (कराची) में के. जी. क्लास में पढ़ता था तो मिस निगहत हमारी उस्तानी थीं। मार-पीट के बजाय बहुत प्यार से पढ़ाती थीं। सफ़ाई-पसंद इतनी थीं कि गंदगी देख कर उन्हें ग़ुस्सा आ जाता था और किसी बच्चे के गंदे कपड़े या बढ़े हुए नाख़ुन देख कर उसकी हल्की-फुल्की पिटाई भी कर देती थीं। मुझे अब तक याद है कि एक दफ़ा मेरे नाख़ुन बढ़े हुए थे और उनमें मैल जमा था। मिस निगहत ने मेरे नाख़ुनों पर पैमाने से (जिसे आप स्केल या फट्टा कहते हैं।) मारा। चोट हल्की थी लेकिन उस दिन मैं बहुत रोया। लेकिन मिस निगहत ने गंदे और बढ़े हुए नाख़ुनों के जो नुक़्सान बताए वो मुझे अब तक याद हैं और अब मैं जब भी अपने बढ़े हुए नाख़ुन देखता हूँ तो मुझे मिस निगहत याद आ जाती हैं और मैं फ़ौरन नाख़ुन काटने बैठ जाता हूँ।

पहली जमात में पहुँचा तो मिस सरदार हमारी उस्तानी थीं, लेकिन वो जल्द ही चली गईं और उनकी जगह मिस नसीम आईं जो उस्तानी कम और जल्लाद ज़्यादा थीं। बच्चों की इस तरह धुनाई करती थीं जैसे धुनिया रूई धुनता है। ऐसी सख़्त मार-पीट करती थीं कि इन्सान को पढ़ाई से, स्कूल से और किताबों से हमेशा के लिए नफ़रत हो जाए। जो उस्ताद और उस्तानियाँ ये तहरीर पढ़ रहे हैं उनसे मैं दरख़्वास्त करता हूँ कि बच्चों को मार-पीट कर न पढ़ाया करें। बहुत ज़रूरी हो तो डाँट-डपट कर लिया करें।
इस तहरीर को पढ़ने वाले जो बच्चे और बच्चियाँ बड़े हो कर उस्ताद और उस्तानियाँ बनें वो भी याद रखें कि मार-पीट से बच्चे पढ़ते नहीं बल्कि पढ़ाई से भागते हैं। बच्चों को ता'लीम से बेज़ार करने में पिटाई का बड़ा हाथ होता है। हाँ कभी-कभार मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए एक-आध हल्का-फुलका थप्पड़ पड़ जाए तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन अच्छे बच्चों को इसकी कभी ज़रूरत नहीं पड़ती। [...]

सर पर क्या है

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बेटा स्कूल से वापस आकर माँ से बोला: “अम्मी! अम्मी! देखिए तो मेरे सर पर क्या हैं?’’
माँ ने ग़ौर से देखकर कहा: “बेटे तुम्हारे सर पर तो सिर्फ बाल हैं।”

“क्या सिर्फ बाल?” बेटे ने हैरत से पूछा
माँ ने कहा : हाँ भई सिर्फ और सिर्फ बाल हैं, इसके सिवा कुछ नहीं। [...]

क्या होगा?

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उस्ताद: अगर तुम मग़रिब की तरफ़ जाओ तो क्या होगा?
शागिर्द: होगा क्या। मैं ग़ुरूब हो जाऊँगा।


दाढ़ी और ब्रैक

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एक बूढ़ी औरत रास्ते से जा रही थी रास्ते में वो एक साईकल से टकरा गई। साईकल सवार के दाढ़ी भी थी। बूढ़ी ने कहा कि “इतनी बड़ी दाढ़ी रख कर टक्कर देते हो तुम्हें शर्म नहीं आती” उस आदमी ने कहा “ये दाढ़ी है, ब्रेक थोड़ी ही है।”


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