कपास का फूल

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माई ताजो हर रात को एक घंटे तो ज़रूर सो लेती थी लेकिन लेकिन उस रात ग़ुस्से ने उसे इतना ‎सा भी सोने की मोहलत न दी। पौ फटे जब वो खाट पर से उतर कर पानी पीने के लिए घड़े की ‎तरफ़ जाने लगी तो दूसरे ही क़दम पर उसे चक्कर आ गया था और वो गिर पड़ी थी। गिरते हुए ‎उसका सर खाट के पाए से टकरा गया था और वो बेहोश हो गई थी। ‎
ये बड़ा अ'जीब मंज़र था। रात के अँधेरे में सुब्ह-हौले हौले घुल रही थी। चिड़ियाँ एक दूसरे को रात ‎के ख़्वाब सुनाने लगी थीं। बा’ज़ परिंदे पर हिलाए बग़ैर फ़िज़ा में यूँ तैर रहे थे जैसे मसनूई हैं और ‎कूक ख़त्म हो गई तो गिर पड़ेंगे। हवा बहुत नर्म थी और उसमें हल्की-हल्की लतीफ़ सी ख़ुनकी थी। ‎मस्जिद में वारिस अ'ली अज़ान दे रहा था।

ये वही सुरीली अज़ान थी जिसके बारे में एक सिख स्मगलर ने ये कह कर पूरे गाँव को हँसा दिया ‎था कि अगर मैंने वारिस अ'ली की तीन चार अज़ानें और सुन लीं तो वाहेगुरु की क़सम ख़ाके कहता ‎हूँ कि मेरे मुसलमान हो जाने का ख़तरा है।
अज़ान की आवाज़ पर घरों में घुमर-घुमर चलती हुई मधानियाँ रोक ली गई थीं। चारों तरफ़ सिर्फ़ ‎अज़ान हुक्मरान थी और इस माहौल में माई ताजो अपनी खाट के पास ढेर पड़ी थी। उसकी कनपटी ‎के पास उसके सफ़ेद बाल अपने ही ख़ून से लाल हो रहे थे। [...]

कतबा

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शहर से कोई डेढ़ दो मील के फ़ासले पर पर फ़िज़ा बाग़ों और फुलवारियों में घिरी हुई क़रीब क़रीब एक ही वज़ा की बनी हुई इमारतों का एक सिलसिला है जो दूर तक फैलता चला गया है। इमारतों में कई छोटे बड़े दफ़्तर हैं जिनमें कम-ओ-बेश चार हज़ार आदमी काम करते हैं। दिन के वक़्त इस इलाक़े की चहल पहल और गहमा गहमी उमूमन कमरों की चार दीवारियों ही में महदूद रहती है। मगर सुबह को साढे़ दस बजे से पहले और सह-पहर को साढे़ चार बजे के बाद वो सीधी और चौड़ी चकली सड़क जो शहर के बड़े दरवाज़े से उस इलाक़े तक जाती है, एक ऐसे दरिया का रूप धार लेती है जो पहाड़ों पर से आया हुआ और अपने साथ बहुत सा ख़स-ओ-ख़ाशाक बहा लाया हो।
गर्मी का ज़माना, सह-पहर का वक़्त, सड़कों पर दरख़्तों के साए लंबे होने शुरू हो गए थे मगर अभी तक ज़मीन की तपिश का ये हाल था कि जूतों के अंदर तलवे झुलसे जाते थे। अभी अभी एक छिड़काव गाड़ी गुज़री थी। सड़क पर जहाँ जहाँ पानी पड़ा था बुख़ारात उठ रहे थे।

शरीफ़ हुसैन क्लर्क दर्जा दोम, मामूल से कुछ सवेरे दफ़्तर से निकला और उस बड़े फाटक के बाहर आ कर खड़ा हो गया जहाँ से ताँगे वाले शहर की सवारियाँ ले जाया करते थे।
घर लौटते हुए आधे रास्ते तक ताँगे में सवार हो कर जाना एक ऐसा लुत्फ़ था जो उसे महीने के शुरू के सिर्फ़ चार पाँच रोज़ ही मिला करता था और आज का दिन भी उन्ही मुबारक दिनों में से एक था। आज खिलाफ़-ए-मामूल तनख़्वाह के आठ रोज़ बाद उसकी जेब में पाँच रुपये का नोट और कुछ आने पैसे पड़े थे। वजह ये थी कि उसकी बीवी महीने के शुरू ही में बच्चों को ले कर मैके चली गई थी और घर में वो अकेला रह गया था। दिन में दफ़्तर के हलवाई से दो-चार पूरियाँ ले कर खा ली थीं और ऊपर से पानी पी कर पेट भर लिया था। रात को शहर के किसी सस्ते से होटल में जाने की ठहराई थी। बस बे-फ़िकरी ही बेफ़िकरी थी। घर में कुछ ऐसा असासा था नहीं जिसकी रखवाली करनी पड़ती। इसलिए वो आज़ाद था कि जब चाहे घर जाए और चाहे तो सारी रात सड़कों पर घूमता रहे। [...]

आज के लैला मजनूँ

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एक थी लैला, एक था मजनूँ। मगर लैला का नाम लैला नहीं था, लिली था, लिली डी सूज़ा।
वो दोनों और उनके क़बीले सहरा-ए-अरब में नहीं रहते थे। माहिम और बांद्रा के बीच में सड़क के नीचे और खारी पानी की खाड़ी के किनारे जो झोंपड़ियों की बस्ती है वहाँ रहते थे। मगर सहरा-ए-अरब की तरह इस बस्ती में भी पानी की कमी थी। डेढ़ सौ झोंपड़ियों में जो सात सौ मर्द, औरतें और बच्चे रहते थे। इन सब के लिए मीठे पानी का सिर्फ़ एक नल था और इस नल में सिर्फ़ दो घंटे सुब्ह और दो घंटे शाम को पानी आता था। एक कनस्तर या एक घड़ा पानी लेने के लिए कई कई घंटे पहले से लाईन लगानी पड़ती थी।

एक रात को मोहन झोंपड़ी में अपने बाप की खटिया के नीचे सो रहा था कि उसकी माँ ने उसे झिंझोड़ कर उठाया। “मोहन, ए मोहन जा, नल पर अपनी गागर लाईन में रख के आ, नहीं तो पानी नहीं मिलेगा।”
मोहन की उम्र उस वक़्त मुश्किल से नौ बरस की होगी और नौ बरस के बच्चे को जो दिन-भर कीचड़ मिट्टी में दौड़ता भागता रहा हो, बड़ी पक्की नींद आती है। आधी रात को उसे उठाना आसान नहीं है। [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

मज़दूर

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‎(1)
शाम। आसमान पर हल्के हल्के बादल। शाम, सुर्ख़ और उन्नाबी। आसमान पर ख़ून, उस जगह जहाँ ‎ज़मीन और आसमान मिलते हैं। उफ़ुक़ पर ख़ून जो ब-तदरीज हल्का होता जाता था, नारंजी और ‎गुलाबी, फिर सब्ज़ और नीलगूँ और सियाही-माइल नीला जो सर के ऊपर सियाह हो गया था। ‎सियाही। सरुपा मौत की सियाही और एक आदमी ज़मीन से बीस फुट ऊँचा खम्बे पर चढ़ा हुआ, ‎बंदर की तरह खम्बे पर चिमटा, एक रस्सी के टुकड़े पर अपने चूतड़ टिकाए एक लच्छे में से तार ‎लगा रहा है।

यूनीवर्सिटी की सड़क पर बिजली की रौशनी के लिए तार और खम्बे, आसूदा-हाल तालिब-ए-इ'ल्मों ‎और मोटरों पर चढ़ने वाले रईसों के लिए रौशनी, क्योंकि मज़दूर को भी अपनी दोज़ख़ भरनी है। ‎ख़ुशहाल और खाते पीते लोगों के लिए, जो क़ीमती कपड़े पहनते हैं, जिनके दिमाग़ों में गोबर भरा ‎होता है। रौशनी करने को खंबों पर चढ़ के, हवा में लटक कर अपनी जान ख़तरा में डालने के बा'द ‎इसको सिर्फ़ छः आने रोज़ मिलते और नौजवान काले कोट और सफ़ेद पाजामे पहने हुए आसूदगी ‎की शान और पैसे के घमंड से इस बंदर पे जो उनकी चर्बी से ढकी हुई आँखों के लिए रौशनी लगाने ‎को चढ़ा हुआ था, एक नज़र डालते हुए गुज़र जाते।
‎“हमारे बोर्डिंग हाऊस के पीछे वाली सड़क पर रौशनी लग रही है। अब तो बिजली की रौशनी होगी। ‎बिजली की रौशनी!” और उनके खोखले दिमाग़ इसी के राग गाते और बिजली के ख़्वाब देखते। ‎लेकिन कोई भी उस मज़दूर का ख़याल न करता जो नंगे बदन हवा में लटका हुआ पेट की आग ‎बुझाने के लिए खम्बे पर तार लगा रहा है और उनके पैरों की अहमक़ाना आवाज़ खट... खट... ख… ‎होती और वो मस्ताना-रवी से चहल-क़दमी करते हुए गुज़र जाते और मज़दूर की रगें और पट्ठे ‎मेहनत के असर से उसके जिस्म पर चमकते दिखाई देते और रात बढ़ती आती थी। [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

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