इक अजब ही सिलसिला था मैं न था

By mohammad-ahmadNovember 6, 2020
इक अजब ही सिलसिला था मैं न था
मुझ में कोई रह रहा था मैं न था
मैं किसी का अक्स हूँ मुझ पर खुला
आइने का आइना था मैं न था


मैं तुम्हारा मसअला हरगिज़ न था
ये तुम्हारा मसअला था मैं न था
फिर खुला मैं दोनों के माबैन हूँ
इक ज़रा सा फ़ासला था मैं न था


एक ज़ीने पर क़दम जैसे रुकें
तिरी रह का मरहला था मैं न था
वो जो इक गुम-कर्दा-रह था दश्त में
वो तो मेरा रहनुमा था मैं न था


ऊँची नीची राह महव-ए-रक़्स थी
डगमगाता रास्ता था मैं न था
तुम ने जिस से सम्त पूछी दश्त में
वो कोई क़िबला-नुमा था मैं न था


ये कहानी थी मगर मेरी न थी
वो जो मर्द-ए-माजरा था मैं न था
मैं तो अपनी शाख़ से था मुत्तसिल
पात जो वक़्फ़-ए-हवा था मैं न था


ख़ुद से मिल कर बुझ गया था मैं तो कल
दीप जो शब भर जला था मैं न था
मैं न था कहता था जो हर बात पर
वो तो कोई दूसरा था मैं न था


मैं तो 'अहमद' कब से महव-ए-यास हूँ
कल जो महफ़िल में हँसा था मैं न था
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