जो उठी थी मेरी तरफ़ कभी दिल-ए-मो'तबर की तलाश में
By kaif-moradaabadiNovember 3, 2020
जो उठी थी मेरी तरफ़ कभी दिल-ए-मो'तबर की तलाश में
मेरी सारी उम्र गुज़र गई उसी इक नज़र की तलाश में
ग़म-ए-इश्क़ ही को मैं क्या कहूँ तिरे हुस्न को भी नहीं सुकूँ
कभी इस नज़र की तलाश में कभी उस नज़र की तलाश में
जो यही जुनूँ है तो मिल चुकी हमें मंज़िल-ए-ग़म-ए-आशिक़ी
उसी रहगुज़र से गुज़र गए उसी रहगुज़र की तलाश में
सर-ए-मंज़िल आ के पता चला कि क़दम क़दम पे फ़रेब था
कहीं हम-सफ़र की उमीद में कहीं हम-सफ़र की तलाश में
उसे वस्ल कैसा हक़ीक़तन ग़म-ए-हिज्र का भी तो हक़ नहीं
जो तमाम रात गुज़ार दे मगर इक सहर की तलाश में
है अजीब क़िस्मत-ए-'कैफ़' भी ये मिला है हासिल-ए-बंदगी
कि मज़ाक़-ए-सज्दा भी खो दिया किसी संग-ए-दर की तलाश में
मेरी सारी उम्र गुज़र गई उसी इक नज़र की तलाश में
ग़म-ए-इश्क़ ही को मैं क्या कहूँ तिरे हुस्न को भी नहीं सुकूँ
कभी इस नज़र की तलाश में कभी उस नज़र की तलाश में
जो यही जुनूँ है तो मिल चुकी हमें मंज़िल-ए-ग़म-ए-आशिक़ी
उसी रहगुज़र से गुज़र गए उसी रहगुज़र की तलाश में
सर-ए-मंज़िल आ के पता चला कि क़दम क़दम पे फ़रेब था
कहीं हम-सफ़र की उमीद में कहीं हम-सफ़र की तलाश में
उसे वस्ल कैसा हक़ीक़तन ग़म-ए-हिज्र का भी तो हक़ नहीं
जो तमाम रात गुज़ार दे मगर इक सहर की तलाश में
है अजीब क़िस्मत-ए-'कैफ़' भी ये मिला है हासिल-ए-बंदगी
कि मज़ाक़-ए-सज्दा भी खो दिया किसी संग-ए-दर की तलाश में
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