किसी के वादा-ए-फ़र्दा में गुम है इंतिज़ार अब भी ख़ुदा जाने है क्यूँ इक बे-वफ़ा पर ए'तिबार अब भी कभी की थी तमन्ना लाला-ओ-गुल की निगाहों ने रुलाती है लहू के रंग में फ़स्ल-ए-बहार अब भी तिरे क़ौल-ओ-अमल में फ़र्क़ मिलता है मुझे ज़ाहिद ज़बाँ पर लफ़्ज़-ए-तौबा है निगह में है ख़ुमार अब भी ख़िज़ाँ के बा'द इस उम्मीद पर गुलशन नहीं छोड़ा ये मुमकिन है कि चल जाए हवा-ए-ख़ुश-गवार अब भी हमारे दिल को जिस ने 'शम्स' वीरानी इनायत की उसी को याद करती है निगाह-ए-बे-क़रार अब भी