आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से अहद-ए-इंक़लाब आया दौर-ए-आफ़्ताब आया मुंतज़िर थीं ये आँखें जिस की इक ज़माने से अब ज़मीन गाएगी हल के साज़ पर नग़्मे वादियों में नाचेंगे हर तरफ़ तराने से अहल-ए-दिल उगाएँगे ख़ाक से मह ओ अंजुम अब गुहर सुबुक होगा जौ के एक दाने से मनचले बुनेंगे अब रंग-ओ-बू के पैराहन अब सँवर के निकलेगा हुस्न कार-ख़ाने से आम होगा अब हमदम सब पे फ़ैज़ फ़ितरत का भर सकेंगे अब दामन हम भी इस ख़ज़ाने से मैं कि एक मेहनत-कश मैं कि तीरगी-दुश्मन सुब्ह-ए-नौ इबारत है मेरे मुस्कुराने से ख़ुद-कुशी ही रास आई देख बद-नसीबों को! ख़ुद से भी गुरेज़ाँ हैं भाग कर ज़माने से अब जुनूँ पे वो साअत आ पड़ी कि ऐ 'मजरूह' आज ज़ख़्म-ए-सर बेहतर दिल पे चोट खाने से