आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है फ़स्ल-ए-गुल जाती है सामान-ए-बहार उठता है शैख़ भी मुज़्तरिब-उल-हाल पहुँच जाता है जानिब-ए-मय-कदा जब अब्र-ए-बहार उठता है मर्हबा बार-ए-अमानत के उठाने वाले क्या कलेजा है तुम्हारा कि ये बार उठता है ख़ार-ए-सहरा-ए-मोहब्बत की खटक क्या कहिए जब क़दम उठता है अपना सर-ए-ख़ार उठता है दूद-ए-आह-ए-दिल-ए-सोज़ाँ है 'मुबारक' अपना जो धुआँ शम्अ से बलीन-ए-मज़ार उठता है