आँख जब आइने में पड़ती है ज़िंदगी देखने में पड़ती है रोज़ कटती है फ़स्ल ख़ुशबू की और तिरे तौलिए में पड़ती है दिन किसी माअ'रके में कटता है शब किसी मोर्चे में पड़ती है छोड़ दुनिया की बात दिल की सुन छोड़ किस वसवसे में पड़ती है तू नहीं है तो रात भर बारिश जाने किस सिलसिले में पड़ती है पाँव को लाख खींचता हूँ मगर वो गली रास्ते में पड़ती है गर्दिश-ए-वक़्त तेरी आँख के इस पुर-कशिश दाएरे में पड़ती है इश्क़ के और हैं मकान-ओ-ज़माँ उम्र इक सानिए में पड़ती है ज़िंदगी तो वहाँ भी है 'अशरफ़' बर्फ़ जिस मिंतक़े में पड़ती है