ऐ कश्मकश-ए-उल्फ़त जी सख़्त परेशाँ है

By ali-manzoor-hyderabadiJune 2, 2024
ऐ कश्मकश-ए-उल्फ़त जी सख़्त परेशाँ है
मरने की भी हसरत है जीने का भी अरमाँ है
साहिल से नहीं लगती ग़र्क़ाब नहीं होती
कश्ती है थपेड़ों में ये भी कोई तूफ़ाँ है


मैं क्या मिरी उल्फ़त क्या तू और मुझे पूछे
बस ऐ सितम-आरा बस हसरत है न अरमाँ है
ये मौज-ए-तबस्सुम क्या ज़ालिम इसे धो देगी
जो रंग-ए-पशेमानी चेहरा से नुमायाँ है


मग़रूर-ए-मोहब्बत हूँ ख़ुद मेरी निगाहों में
ये बे-सर-ओ-सामानी राज़-ए-सर-ओ-सामाँ है
इस हुस्न-ए-मुजस्सम की शर्मीली अदाओं का
एहसास-ए-मोहब्बत भी शर्मिंदा-ए-एहसाँ है


'मंज़ूर' उसे रुख़्सत किस दिल से करूँगा मैं
धड़का है यही हर दम जब से कि वो मेहमाँ है
89153 viewsghazalHindi